द लोकतंत्र/ देवरिया : भोजपुरी का हितुआ चला गया, एक युग चुपचाप विदा हो गया। भारतीय लोकभाषा चेतना के सशक्त हस्ताक्षर, भोजपुरी और हिन्दी साहित्य के अद्वितीय साधक, ‘विश्व भोजपुरी सम्मेलन’ के अंतरराष्ट्रीय संस्थापक महासचिव, संपादक, विचारक और जीवनद्रष्टा डॉ. अरुणेश नीरन अब इस लोक में नहीं हैं। बीती रात उन्होंने गोरखपुर के एक निजी हॉस्पिटल में अंतिम साँस ली। वे 80 वर्ष के थे और कई माह से उम्र जनित रोगों से पीड़ित थे।
उनके निधन से न केवल भोजपुरी, बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की आत्मा शोकाकुल है। उनके निधन से न केवल देवरिया और पूर्वांचल बल्कि देश-विदेश में फैले हिन्दी-भोजपुरी साहित्य प्रेमियों में शोक की लहर दौड़ गई है। लोग सोशल मीडिया और व्यक्तिगत संवादों के माध्यम से उनके संस्मरण साझा कर रहे हैं और इस अपूरणीय क्षति पर अपनी गहरी संवेदना व्यक्त कर रहे हैं। उनका अंतिम संस्कार आज 16 जुलाई 2025 को वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट पर किया जाना है। देवरिया से शवयात्रा प्रातः 10 बजे वाराणसी के लिए रवाना हुई है।
एक जीवंत परंपरा का अवसान :
द लोकतंत्र के न्यूज एडिटर सुदीप्त त्रिपाठी ने बताया कि डॉ. नीरन केवल लेखक नहीं थे वे भाषा, स्मृति और संवेदना की धरोहर थे। उनके शब्दों में जीवंतता थी, उनकी उपस्थिति में वातावरण सजीव हो उठता था। उनके पास न सिर्फ लोक जीवन की कहानियाँ थीं, बल्कि उन्हें कहने का अलौकिक अंदाज़ भी था। जो उनसे एक बार मिलता, वह हमेशा उनका होकर रह जाता।
उन्होंने न केवल भोजपुरी को मंच दिया, बल्कि उसे गरिमा दी, दिशा दी, और विचारधारा दी। समकालीन भोजपुरी साहित्य पत्रिका के माध्यम से उन्होंने भाषा को वल्गैरिटी से मुक्त कर उसे आत्मा से जोड़ा।
एक स्नेहशील, विचारशील छाया का बिछोह :
‘द लोकतंत्र मीडिया वेंचर्स’ के लिए यह एक निजी क्षति है। डॉ. नीरन का स्नेह, मार्गदर्शन और वैचारिक आश्रय हमें हमेशा मिलता रहा। वे न केवल प्रेरणा थे, बल्कि एक छत की तरह थे जिसके नीचे साहित्य, भाषा और विचार सुरक्षित महसूस करते थे। उनके जाने से यह छत उजड़ गई है, और हमारे जैसे अनेक नवलेखकों, शोधार्थियों और पत्रकारों को जैसे खुले आकाश में अकेला छोड़ दिया गया है।
साहित्य के मनीषी, लोक के प्रतिनिधि
डॉ अरुणेश नीरन का जन्म 20 जून 1946 को देवरिया के एक कुलीन परिवार में हुआ था। उन्होंने वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय और कुशीनगर के बुद्धा पीजी कॉलेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं प्राचार्य के रूप में सेवाएँ दीं।
1995 में देवरिया में ‘विश्व भोजपुरी सम्मेलन’ का आयोजन कर उन्होंने न केवल शहर का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया, बल्कि भोजपुरी भाषा को सम्मानजनक वैश्विक स्वर प्रदान किया। उन्होंने ‘पुरइन पात’, ‘भोजपुरी वैभव’, ‘भोजपुरी-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे और सम्पादित किए।
उन्हें 2015 में मारीशस के राष्ट्रपति द्वारा विश्व भाषा सम्मान तथा 2022 में नेपाल की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी द्वारा सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान से नवाजा गया। वे भारत की साहित्य अकादमी और विद्याश्री न्यास से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे।
अनगिनत स्मृतियाँ, एक अमिट रिक्तता:
देशभर से उनके शुभेच्छु सोशल मीडिया और व्यक्तिगत संवादों के माध्यम से अपने संस्मरण साझा कर रहे हैं। कोई उन्हें बनारस के घाटों की परिक्रमा में याद कर रहा है, कोई गोरखपुर की गलियों में उनकी बतकहियों को, तो कोई उनके पत्रों में लिखे आत्मीय शब्दों को सहेज रहा है। साहित्यिक संवादों में उनकी उपस्थिति विचार की तरह बहती थी। वे जहाँ होते, विचार बहता था, संवेदना जन्म लेती थी।
आज उनके ज्येष्ठ पुत्र डॉ. परितोष मणि, आशुतोष मणि त्रिपाठी और जनमेजय मणि इस रिक्तता के बीच अपने पिता की साहित्यिक और मानवीय विरासत को थामे खड़े हैं। भोजपुरी अब अकेली खड़ी है, अपने ‘हितुआ’ के बिना। साहित्य अब कुछ और मौन है, विचार अब कुछ और विलग। डॉ. अरुणेश नीरन का जाना केवल एक साहित्यकार का जाना नहीं है, बल्कि विचार, संवेदना और लोक चेतना के एक पूरे युग का अवसान है। देवरिया ही नहीं, भोजपुरी जगत उन्हें सदैव अपनी स्मृतियों में जीवित रखेगा।