द लोकतंत्र/ आयुष कृष्ण त्रिपाठी : अपने निर्देशन में बनी पहली फिल्म धोबी घाट के चौदह साल बाद, किरण राव एक फ़िल्मेकर के रूप में ‘लापता लेडीज़’ के साथ फिर इंडस्ट्री में लौट आयी हैं। हालाँकि उनकी प्रासंगिकता फ़िल्म उद्योग में एक प्रमुख हस्ती के रूप में बनी हुई है – चाहे वह जियो मामी मुंबई फिल्म महोत्सव की अध्यक्ष के रूप में काम कर रही हों अथवा अभिनेता आमिर खान के साथ उनके नाम का जुड़ाव हो – लेकिन बावजूद किरण राव यह स्वीकार करती हैं कि फ़िल्म निर्देशन न कर पाने के कारण वे कुछ हद तक विचलित महसूस कर रही थीं।
उनकी नवीनतम फिल्म लापता लेडीज़ जिसमें नितांशी गोयल, प्रतिभा रांटा, स्पर्श श्रीवास्तव और रवि किशन ने भूमिका निभायी है, 1 मार्च को रिलीज होने के बाद से दर्शकों को काफी पसंद आ रही है और इसे सकारात्मक समीक्षा मिल रही है। फिल्म में 2001 में ग्रामीण भारत के चित्रण ने लोगों का दिल जीत लिया है, जो स्वतंत्र और विविध कहानी कहने के प्रति राव की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
द लोकतंत्र के साथ हाल ही में हुए एक साक्षात्कार में, राव ने हिंदी सिनेमा के उभरते परिदृश्य पर चर्चा की और ब्लॉकबस्टर हिट और ‘लापता लेडीज’ जैसी छोटी, लेकिन प्रभावशाली फिल्मों के बीच संतुलन की वकालत की। वह प्रामाणिकता के साथ स्टोरी टेलिंग की शक्ति में विश्वास करती हैं, जिसका जीवंत उदाहरण ’12वीं फेल’ जैसी फिल्में हैं, जो बिना किसी स्पेशल इफ़ेक्ट्स या स्टार-स्टड वाले कलाकारों पर भरोसा किए बग़ैर दर्शकों को सहज आकर्षित करती हैं। किरण राव ने कहा, उनकी फ़िल्म ‘लापता लेडीज़’ ने ग्रामीण भारत की वास्तविकता को प्रतिष्ठित करती है।
द लोकतंत्र से बातचीत के दौरान किरण राव एक ऐसे सिनेमाई माहौल के लिए तर्क देती हैं जो विभिन्न प्रकार की कहानियों को अपनाता है और बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन के पूर्व निर्धारित पैमानों से परे होते हुए भी अच्छे दर्शक वर्ग को खींचता है। वह दावा करती हैं कि आधुनिक सिनेमा का सार शिल्प कौशल और सम्मोहक कहानी कहने में निहित है, जरूरी नहीं कि उक्त सिनेमा में स्टार पॉवर निहित हो।
‘लापता लेडीज़’ दरअसल 2001 में ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित एक मार्मिक कहानी है। यह दो युवा दुल्हनों की कहानी है जो एक ट्रेन यात्रा के दौरान गलती से अलग हो जाती हैं। जिसके बाद एक समर्पित पुलिस अधिकारी किशन द्वारा उनकी खोज शुरू की जाती है। यह फिल्म उस युग में पहचान और प्रौद्योगिकी के विषयों की पड़ताल भी करती है जब मोबाइल फोन दुर्लभ थे, बावजूद इसका संदेश कालातीत है। आमिर खान प्रोडक्शंस और किंडलिंग प्रोडक्शंस द्वारा निर्मित, बिप्लब गोस्वामी की पटकथा और दिव्यनिधि शर्मा के संवादों के साथ, ‘लापता लेडीज’ ने पहले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचा चुकी है। इस फ़िल्म का IFFM समर फेस्टिवल में प्रीमियर हुआ और टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में इस फ़िल्म को स्टैंडिंग ओवेशन प्राप्त हुआ।
द लोकतंत्र के साथ बातचीत में, प्रतिभा रांटा जो फ़िल्म में मुख्य किरदार निभा रही हैं उन्होंने किरण राव की फ़िल्म ‘लापता लेडीज’ में अपने किरदार जया की जटिलताओं पर प्रकाश डाला। शिमला में अपनी परवरिश के बावजूद, रांटा को जया का किरदार निभाने का मौक़ा मिला, जो एक रूढ़िवादी पृष्ठभूमि की चरित्र थी। और जो साहसपूर्वक सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती थी। अभिनेत्री प्रतिभा ने बताया कि फ़िल्म प्रमोशन के व्यस्ततम कार्यक्रम के दौरान वह अपने डेब्यू को लेकर थोड़ा नर्वस ज़रूर थीं लेकिन फ़रवरी में हुए फ़िल्म के प्रमियर में दर्शकों का उत्साह देखकर उनकी घबराहट दूर हो गई। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि जया के किरदार को महिलायें ख़ुद से जोड़ कर देख पा रही हैं।
अपनी भूमिका जिसमें जया के व्यक्तित्व को मूर्त रूप देने के लिए कुछ महत्वपूर्ण प्रयास शामिल थे, उसके लिए प्रतिभा ने काफ़ी मेहनत की। उन्होंने एक प्रशिक्षक की मदद से मध्य प्रदेश की भाषा-बोली में महारत हासिल करने से लेकर किरदार के मुताबिक़ अपने शारीरिक परिवर्तन पर काफ़ी ध्यान दिया जिससे जया का चरित्र पूरी तरह निखर कर दर्शकों के सामने आये। फ़िल्म को लेकर प्रतिभा का यह समर्पण और अन्य प्रतिभाशाली कलाकारों के सहयोग एवं किरण राव के सटीक निर्देशन के साथ मिलकर, जया का चरित्र चित्रण काफ़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्मांकित हुआ जो जया की आंतरिक उथल-पुथल और लचीलेपन को दर्शाता है।
निर्देशक किरण राव के मार्गदर्शन में लैंगिक मुद्दों से निपटने वाली इस फिल्म पर काम करना रांटा के लिए बेहद प्रभावशाली था। वह राव की स्पष्ट दृष्टि और सेट पर सहयोगात्मक माहौल की प्रशंसा करती हैं, जिसने उन्हें केवल अपने प्रदर्शन पर ध्यान केंद्रित करने में सहयोग किया। अभिनेत्री प्रतिभा रांटा ‘लापाता लेडीज़’ को एक महत्वपूर्ण कार्य के रूप में देखती है जो उपदेशात्मक हुए बिना महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों को संबोधित करती है, और यह महिलाओं की कहानियों के लिए सिनेमा द्वारा बनाई गई समावेशी जगह की याद दिलाने का काम करती है।
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( साक्षात्कार हमारे साथी आयुष कृष्ण त्रिपाठी ने ली है। )