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सोचिए क्या हो अगर किसी तरह का ‘क़ानून’ न हो, पुलिस और जेल न हो, अदालतें न हों, सजायें न हों?

Imagine what would happen if there were no 'laws' of any kind, no police, no prisons, no courts and no punishments?

द लोकतंत्र/ उमा पाठक : कभी कभी मैं यह सोचती हूँ कि यदि समाज में ‘डर’ का अस्तित्व ही न हो तो क्या होगा? क्या हो अगर कोई क़ानून न हो, पुलिस न हो, जेल न हो, अदालतें न हों, सजायें न हों? मतलब बिना डर के समाज का वास्तविक स्वरूप क्या होगा? ऐसी स्थिति को सोचकर ही डर गये ना? दरअसल, एक औसत समझ का व्यक्ति भी यह बता सकता है कि अगर समाज में डर न हो तो उसकी कल्पना एक ऐसे भयावह जंगल की तरह की जा सकती है जहाँ कोई नियम, कोई अनुशासन, कोई संतुलन नहीं बल्कि हिंसा और अराजकता होगी। टेक्निकली, बिना डर के मनुष्य की प्रवृत्ति अनियंत्रित और पशुवत् हो सकती है और ‘समाज’ और ‘सभ्यता’ नाम के शब्द का लोप हो सकता है। दरअसल, डर हमारे भीतर नैतिकता, संयम और सामाजिक मर्यादा बनाए रखने में सहायक होता है। डर का अर्थ केवल किसी बाहरी भय से नहीं है; यह हमारे भीतर की चेतना, आत्मसंयम और परिणामों के प्रति जागरूकता से जुड़ा है। 

स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य की बातें क्यों रची गयीं होंगी?

हमारी पौराणिक कथाओं में बार बार यह बताया गया है कि बुरे काम करने वालों को नरक में कड़ी सज़ा मिलती है। स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य की बातें संभवतः इन्ही वजहों से रची गढ़ी गई होंगी ताकि मनुष्य के भीतर के पशु को नियंत्रण में रखा जा सके। स्वर्ग की कामना और नरक का भय, ये दोनों ही भाव इंसान के भीतर एक अदृश्य लगाम की तरह कार्य करते हैं। अब चूँकि सभ्यता का आधार है नियंत्रण और मर्यादा, जो मनुष्य के भीतर के पशु को शांत और विवेकशील बनाए रखते हैं ऐसे में यह डर चाहे कानून का हो, समाज की मर्यादा का हो, या फिर पौराणिक रूप से स्थापित स्वर्ग-नरक की कल्पना का, मनुष्य के भीतर का संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

गरुड़ पुराण जैसी किताबों में यह तक कहा गया है कि जो लोग दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, धोखा देते हैं या किसी तरह की यातना देते हैं, उन्हें मरने के बाद नरक में तरह-तरह की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं। हत्या करने वाले को ऐसी जगह भेजा जाता है जहाँ उसे कभी खत्म न होने वाला दर्द झेलना पड़ता है। जो लोग झूठ बोलते हैं या धोखा देते हैं, उन्हें उबलते हुए तेल में डुबोकर सज़ा दी जाती है। ये बातें सुनने में डरावनी हैं, लेकिन उनका उद्देश्य बस इतना था कि लोग अपने अंदर के गलत विचारों को रोके रखें और अच्छा बनने की कोशिश करें, नैतिकता में रहें। नरक की यह कहानियाँ सिर्फ डर पैदा करने के लिए नहीं थीं बल्कि मानव को सभ्य समाज के लिए अनुकूल बनाए रखने के क़वायद के रूप में थीं। 

नियम-क़ानून का डर हमारे अंदर नैतिकता का भाव पैदा करता है

जब हम समाज की बात करते हैं, तो ये बस एक समूह का नहीं बल्कि एक जीवन-व्यवस्था का ताना-बाना है जो नियम, अनुशासन और एक आदर्श परिभाषा के सहारे टिकता है। नियम-क़ानून का डर हमारे अंदर नैतिकता का भाव पैदा करता है। इस बात को हम अपने आस-पास भी देख सकते हैं। मसलन मेट्रो में, एयरपोर्ट पर सफाई और अनुशासन का जो स्तर होता है, वह सख्त नियमों और जुर्माने का नतीजा है। अगर आप मेट्रो या एयरपोर्ट में गंदगी फैलाते हैं, तो तुरंत जुर्माना लग सकता है, और इसी डर की वजह से लोग वहाँ सफाई का ध्यान रखते हैं। वहीं दूसरी ओर रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों पर लोग गुटखा खाकर थूकते हैं, कूड़ा फैलाते हैं, और खुले में अव्यवहारिक, असभ्य बर्ताव करते हैं क्योंकि वहाँ निगरानी और सज़ा का डर नहीं है। एक ही जनता और दो अलग अलग व्यवहार मतलब साफ है कि भय और अनुशासन की उपस्थिति में समाज सुसंस्कृत होता है, और जब भय समाप्त हो जाए तो वही समाज अराजकता की ओर बढ़ता है।

मैंने इतनी बातें लिखीं, डर की व्यावहारिकता को स्थापित करने की कोशिश की पता है क्यों? क्योंकि, कहीं न कहीं समाज के भीतर से अब क़ानून का, स्वर्ग-नरक का, पाप-पुण्य का डर समाप्त होता जा रहा है। तेज़ी से अपराध बढ़ रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्ति मनुष्य पर हावी होती जा रही है। आदमी समाज द्वारा स्थापित नियमों के विपरीत जाकर काम कर रहा है। हत्याएँ, बलात्कार, लूट जैसी घटनाएँ बढ़ रही हैं, रिश्ते कलंकित हो रहे हैं, मर्यादाएँ तार तार हो रही हैं। और, ऐसा सिर्फ़ इसलिए हो रहा है क्योंकि पूर्व में तय सारे मानक, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक की बातें, नैतिकता, समाजिकता के तयशुदा ढाँचे ध्वस्त होते जा रहे हैं। मौजूदा क़ानून भी अपराधियों को सज़ा तक नहीं पहुँचा पा रहे और स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य की बातें हमारी प्रगतिशील बातों और तर्कों के सामने हर रोज बौने साबित हो रहे हैं। भय किसी भी समाज को अनुशासित बनाने का सबसे कारगर साधन है। अगर भय नहीं, तो समाज और उसकी व्यवस्थाएँ नहीं। 

सभ्य समाज की पुनर्स्थापना के लिए ‘भय की सत्ता’ दुबारा स्थापित कैसे हो?

अब सवाल यह है कि सभ्य समाज की पुनर्स्थापना के लिए ‘भय की सत्ता’ दुबारा स्थापित कैसे हो? कैसे पशुता और क्रूरता की ओर बढ़ रहे मानव को वापस समाज के नियमों, क़ानूनों की बंदिशों के दायरे में लाया जाये ? कैसे बलात्कार, हत्या जैसे जघन्य अपराधों को ख़त्म किया जाये? कैसे रिश्तों के मूल्य और उनकी अहमियत को समझाया जाये? कैसे सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हो, कैसे लोक व्यवहार को बेहतर किया जाये? सवालों का स्वरूप अलग अलग हो सकते हैं लेकिन विषय एक ही है कि तेज़ी से ख़त्म होते जा रहे सामाजिक ताने बाने को कैसे बचाया जाये? ग्रीक दार्शनिक प्लेटो ने कहा था कि इंसान का स्वभाव संतुलन और संयम के बीच का खेल है। यदि यह संतुलन बिगड़ जाए, तो मनुष्य के भीतर की पशुता बाहर आ सकती है, जिससे वह सामाजिक मर्यादाओं का पालन नहीं करेगा। मेरी समझ से ऊपर के तमाम सवालों के उत्तर भी हमारे समाज के भीतर से ही निकलेगा। हमारे समाज को ही पहल करनी होगी कि शुरुआत से ही नैतिकता, संस्कार और डर का बीज बालमन में बोया जाये। पैरेंट्स अपने बच्चों को सही-ग़लत का फ़र्क़ बतायें, उन्हें समाज में रहने के काबिल बनायें। मोरल पुलिसिंग ज़रूरी है ताकि समाज के तयशुदा मानकों के अनुकूल बच्चो को तैयार किया जा सके।

दूसरी ओर, सरकारों की ज़िम्मेदारी भी बनती है कि वो सज़ाओं को सख़्त बनायें और क़ानून को लागू कराने में सख़्ती बरतें। जब कानून सख्त और सजा की व्यवस्था त्वरित होती है, तो समाज में एक स्पष्ट संदेश जाता है कि अपराध का तुरंत और निश्चित खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इससे अपराधियों के मन में डर पैदा होता है और आम नागरिकों में सुरक्षा की भावना बढ़ती है। यह भी जरूरी है कि न्यायिक प्रणाली में आवश्यक सुधार किए जाएँ ताकि केसों का निपटारा तेजी से हो सके। सख्त कानून और त्वरित सजा समाज में अपराधियों के मन में डर पैदा करने और अपराध की प्रवृत्ति को कम करने के लिए अत्यधिक आवश्यक हैं। समाज में शांति, सुरक्षा और विश्वास बनाए रखने के लिए सरकार का यह कदम निर्णायक साबित हो सकता है, और इससे लोग अधिक सुरक्षित महसूस करेंगे। 

प्राथमिक शिक्षा स्तर पर कानून की पढ़ाई को सिलेबस में जोड़ने की ज़रूरत

इसके अलावा, प्राथमिक शिक्षा स्तर पर कानून की पढ़ाई को सिलेबस में जोड़ने की ज़रूरत है। यह बच्चों के भीतर अपराध और उसके परिणामों के प्रति न केवल जागरूकता बढ़ाएगा बल्कि उन्हें नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का भी अहसास कराएगा। कानून की प्रारंभिक समझ से बच्चे यह सीख सकते हैं कि कौन से काम सही हैं और कौन से गलत। उन्हें पता चलेगा कि चोरी, झूठ बोलना, हिंसा करना, या अन्य गैरकानूनी गतिविधियाँ समाज को कैसे प्रभावित करती हैं और उनके गंभीर परिणाम क्या होते हैं। इससे वे छोटे से ही इन बुराइयों से दूर रहने की आदत डाल सकते हैं। इस तरह, वे कानून के प्रति संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनेंगे, जो न केवल अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे बल्कि अपराधों को लेकर संवेदनशीलता और सजगता भी विकसित करेंगे। यह समझने की ज़रूरत है कि इंसान की स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियंत्रित करने के लिए डर की भूमिका एक अदृश्य मार्गदर्शक के समान है।

इस आर्टिकल की लेखिका उमा पाठक पेशेवर पत्रकार हैं और मौजूदा समय में एक मीडिया संस्थान में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हैं। इस लेख में उन्होंने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।

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