द लोकतंत्र/ राबी शुक्ला / सुदीप्त मणि त्रिपाठी : कभी बस डिपो था, अब मैदान है। कभी इमारत थी, अब टीन की छत है। ये कहानी है देवरिया बस डिपो की जहां विकास ‘प्रस्तावित’ है और जनता ‘परेशान’। जनपद देवरिया, जो मुख्यमंत्री के गृह-जनपद गोरखपुर से मात्र कुछ किलोमीटर की दूरी पर है, और जहां के प्रभारी मंत्री स्वयं राज्य के परिवहन मंत्री हैं उस जिले का बस डिपो आज एक बदहाल मैदान में तब्दील हो चुका है। मतलब यह कि मुख्यमंत्री के पड़ोसी ज़िले देवरिया का बस डिपो आज भी एक ‘प्रस्तावित भवन’ और ‘काम चलाऊ इंतज़ाम’ के बीच झूल रहा है।
मुख्य इमारत को ‘जर्जर’ बता कर गिरा तो दिया गया, लेकिन उसकी जगह कोई स्थायी बिल्डिंग आज तक नहीं खड़ी हो सकी। ऐसे में, देवरिया डिपो की पहचान के नाम पर यात्रियों के सिर पर है तो बस समाज के सहयोग से डाली गई एक ‘टीन की छत’ और नीचे है तपती ज़मीन, जिससे हर दिन हजारों लोग झुलसते हैं।
प्रभारी मंत्री देते हैं रटा रटाया जवाब, प्रस्तावित है ‘अत्याधुनिक’ डिपो
देवरिया बस स्टैंड की मुख्य इमारत को ‘जर्जर’ बताकर गिरा तो दिया गया, लेकिन उसके स्थान पर कोई ठोस निर्माण आज तक नहीं हुआ। सरकार कहती रही कि डिपो ‘प्रस्तावित’ है, बजट ‘पास’ हो गया है, टेंडर ‘जारी’ होने वाला है। लेकिन ज़मीन पर न ईंट रखी गई, न खंभा खड़ा हुआ। यात्रियों की पीड़ा स्थायी है, व्यवस्था तात्कालिक। प्रभारी मन्त्री दयाशंकर सिंह जब भी देवरिया आते हैं तो बस डिपो के सवाल पर रटा रटाया जवाब देखकर चलते बनते हैं।
इस संदर्भ में, वरिष्ठ पत्रकार त्रिपुरेश पति त्रिपाठी कहते हैं, देवरिया जनपद का रोडवेज परिसर आज बदहाली का प्रतीक बन चुका है। रोज़ाना लगभग 10 हज़ार लोग यहां से यात्रा करते हैं, लेकिन न छत है, न शौचालय, न पीने का पानी और न विश्रामालय। लम्बी दूरी से आए ड्राइवरों के लिए भी कोई आरामगाह नहीं। 5-6 साल पहले एक पूर्व मंत्री ने दावा किया था कि 48 घंटे में निर्माण शुरू होगा, लेकिन वह सिर्फ बयानबाज़ी निकला। यदि ईमानदार सोच होती तो जनता के सहयोग से खुले टेंडर के माध्यम से निर्माण हो सकता था, लेकिन अब पीपी मॉडल के नाम पर वर्षों तक सिर्फ वादे होंगे।
बदहाल बस डिपो की बेहाल कहानी यात्रियों की ज़ुबानी
द लोकतंत्र ने यात्रियों से भी व्यवस्थाओं के बाबत सवाल पूछा जिसपर रामेश्वर प्रसाद, जो अक्सर देवरिया से गोरखपुर जाते हैं, ग़ुस्से में कहते हैं, सरकार का मतलब अब सिर्फ़ टैक्स लेना और पोस्टर छपवाना रह गया है। सुविधा चाहिए तो सामाजिक संस्थाओं से मदद मांगिए। उन्होंने टीन शेड की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि उसपर साफ़ शब्दों में लिखा है कि इसे किसी सामाजिक संस्था ने लगवाया है।
वहीं, गोरखपुर में पढ़ने वाली कॉलेज की छात्रा रश्मि कहती हैं, गर्मी में यहां खड़ा होना सज़ा से कम नहीं। धूप में खड़े रहो, उमस और सूर्य की तपन सहो। हालत बहुत बुरी है। गर्मी में टीन शेड भी बहुत तपती है। मजबूरी में यात्रा करना पड़ता है। खिड़की वाली सीट और जगह मिल जाये इसलिए डिपो आकर बस पकड़ने की कोशिश रहती है। तीन साल से यही हालात देख रही हूँ। कोई बदलाव नहीं हुआ है।
आमदनी करोड़ों में, व्यवस्थाएँ ‘सामाजिक संस्थाओं’ के भरोसे
बता दें, यह वही देवरिया बस डिपो है जो हर महीने करीब 6 करोड़ रुपये की कमाई करता है। लेकिन इस करोड़ों की आमदनी वाली जगह पर न बैठने की समुचित व्यवस्था है, न पीने के पानी की, न शौचालयों की सफाई और न ही छांव जैसी बुनियादी सुविधा। यात्रियों के लिए जो टीन शेड खड़ा है, वो सरकार ने नहीं एक स्थानीय ट्रस्ट और सामाजिक संस्थाओं ने दान में दिया है। वाटर कूलर भी सामाजिक सहयोग और नगरपालिका की कृपा से लगाए गए हैं। ज़िम्मेदार हर साल नये बहाने बनाते हैं। कहते हैं, PPP मॉडल पर अत्याधुनिक डिपो बनेगा, पहले प्रस्तावित था, फिर स्वीकृत हुआ, अब टेंडर की बात चल रही है। लेकिन जनता कब तक इंतज़ार करे? क्या देवरिया का विकास केवल ‘प्रस्तावों’ में रहेगा? क्या जनता हर बार टेंडर की प्रतीक्षा में चिलचिलाती धूप में यूं ही खड़ी रहेगी?
सांसद शशांक मणि ने भी दोहराया – शेड निर्माण का बजट आ चुका है, अगले हफ्ते टेंडर होगा
इस बदहाल स्थिति को देखने देवरिया के सांसद शशांक मणि पहुंचे गर्म दोपहर में, टीन की छतों के नीचे पसीने में भीगते लोगों के बीच। उन्होंने बस अड्डे का निरीक्षण किया, फोटो खिंचवाया, और फिर वादों की परंपरा निभाते हुए सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एलान किया कि शेड निर्माण का बजट आ चुका है, अगले हफ्ते टेंडर होगा, कार्य जल्द शुरू होगा।
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डिपो के हालात से केवल यात्री ही नहीं, कर्मचारी भी परेशान हैं। 74 निगम की और 126 अनुबंधित बसों को बेहद सीमित स्टाफ के सहारे चलाया जा रहा है। डिपो को फिलहाल चालकों और बाबुओं की भी ज़रूरत है, लेकिन भर्ती की प्रक्रिया फाइलों से आगे नहीं बढ़ी है। एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, हमने कई बार रिक्वायरमेंट भेजी है, लेकिन हर बार कहा जाता है कि प्रक्रिया चल रही है। कर्मचारी कम हैं, लेकिन काम पूरा चाहिए।