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ईरान-इज़राइल तनाव: दशकों पुरानी दुश्मनी और वर्तमान में मंडराता युद्ध का ख़तरा

Iran-Israel tensions: Decades-old animosity and the present threat of war

द लोकतंत्र/ आयुष कृष्ण त्रिपाठी : मध्य पूर्व में ईरान-इज़राइल के बीच गहराता संघर्ष आज वैश्विक चिंता का केंद्र बन चुका है। कभी जो दो राष्ट्र रणनीतिक साझेदार हुआ करते थे, वे अब ऐसी कट्टर दुश्मनी की राह पर हैं, जो न केवल क्षेत्रीय स्थिरता को डगमगा रही है, बल्कि वैश्विक भू-राजनीतिक संतुलन और आर्थिक सुरक्षा को भी चुनौती दे रही है।

इस ऐतिहासिक वैर की शुरुआत 1979 की ईरानी इस्लामिक क्रांति से हुई, जिसने दोनों देशों के रिश्तों को हमेशा के लिए बदल दिया। तब से अब तक, भले ही सीधा युद्ध न हुआ हो, लेकिन प्रॉक्सी युद्ध, साइबर हमले, खुफिया मिशन और परमाणु हथियारों की चिंता इस तनाव को निरंतर गहराते रहे हैं।

दोस्त से दुश्मन तक: एक बदली हुई साझेदारी

1948 में इज़राइल की स्थापना के बाद अधिकांश अरब देशों ने उसे मान्यता देने से इनकार कर दिया था। लेकिन उस दौर में अमेरिका के करीबी और धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व वाले ईरान ने 1950 में तुर्की के बाद इज़राइल को मान्यता देकर सबको चौंका दिया था। यह एक व्यावहारिक और गुप्त साझेदारी थी। ईरान, इज़राइल को तेल बेचता था, और इज़राइल बदले में ईरान को आधुनिक हथियार, सैन्य प्रशिक्षण और खुफिया सहायता प्रदान करता था। दोनों देशों की खुफिया एजेंसियां ईरान की ‘सवाक’ और इज़राइल की ‘मोसाद’ साथ मिलकर काम करती थीं। यहां तक कि 1970 के दशक में उन्होंने ‘प्रोजेक्ट फ्लावर’ नामक साझा मिसाइल कार्यक्रम भी शुरू किया।

यह साझेदारी तीन दशकों तक चली और मध्य पूर्व में सोवियत प्रभाव को रोकने के साझा उद्देश्य से संचालित होती रही। दोनों ही अमेरिका के सहयोगी थे, और उनका तालमेल कूटनीतिक व सामरिक रूप से प्रभावी माना जाता था।

1979: दोस्ती का अंत और वैचारिक युद्ध की शुरुआत

लेकिन 1979 की इस्लामिक क्रांति ने सत्ता की बागडोर शाह से अयातुल्ला खुमैनी को सौंप दी। नई सरकार ने इज़राइल को अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रतीक और एक अवैध ‘ज़ायोनी सत्ता’ घोषित कर दिया। तेहरान स्थित इज़राइली दूतावास को बंद कर, उसकी जगह फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) का कार्यालय खोल दिया गया। मिसाइल सहयोग तोड़ा गया और इसके बाद ईरान ने हमास और हिज़बुल्लाह जैसे संगठनों का समर्थन शुरू किया, जिन्हें इज़राइल आतंकवादी संगठन मानता है। तब से दोनों देशों ने प्रत्यक्ष युद्ध से तो परहेज़ किया, लेकिन एक गहरे और जटिल छाया युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी।

छाया युद्ध के प्रमुख मोर्चे

1. हिज़बुल्लाह और लेबनान युद्ध

1982 में इज़राइल के लेबनान आक्रमण के बाद ईरान समर्थित शिया मिलिशिया ‘हिज़बुल्लाह’ का उदय हुआ। 2006 के युद्ध समेत कई अवसरों पर हिज़बुल्लाह ने इज़राइल पर हमले किए, जिनका रणनीतिक नियंत्रण ईरान से जुड़ा माना गया।

2. सीरिया में प्रभाव और इज़राइली हमले

सीरियाई गृहयुद्ध में ईरान ने बशर अल-असद के शासन का खुलकर समर्थन किया। वहीं इज़राइल ने सीरिया में ईरानी सैन्य ठिकानों और हिज़बुल्लाह की गतिविधियों को बार-बार निशाना बनाया। इज़राइल के लिए सीरिया में ईरानी उपस्थिति, विशेषकर गोलान हाइट्स के समीप, एक सीधा सुरक्षा ख़तरा है।

3. परमाणु कार्यक्रम को लेकर टकराव

ईरान का परमाणु कार्यक्रम इज़राइल के लिए सबसे बड़ा खतरा बना हुआ है। इज़राइल को आशंका है कि ईरान गुप्त रूप से परमाणु हथियार विकसित कर रहा है। इज़राइली खुफिया मिशनों पर कई बार ईरानी परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या और साइबर हमलों के आरोप लगे हैं। हाल ही में IAEA ने भी ईरान को उसकी पारदर्शिता की कमी के लिए फटकारा है, जिससे तनाव और गहरा गया है।

4. हमास को समर्थन और गाजा संघर्ष

ईरान लंबे समय से हमास को फंडिंग, हथियार और प्रशिक्षण दे रहा है। अक्टूबर 2023 में हमास द्वारा इज़राइल पर बड़े हमले के बाद, इज़राइल ने इसका सीधा आरोप ईरान पर लगाया। हालांकि ईरान ने सीधी भागीदारी से इनकार किया, लेकिन हमास के प्रतिरोध को समर्थन देना जारी रखा।

अप्रैल 2024: सीधे टकराव की शुरुआत?

अब तक का सबसे बड़ा मोड़ अप्रैल 2024 में आया, जब सीरिया के दमिश्क में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर एक संदिग्ध इज़राइली हवाई हमले के जवाब में ईरान ने सीधे अपनी धरती से इज़राइली क्षेत्र पर ड्रोन और मिसाइल दागे। यह पहली बार था जब दोनों देशों के बीच सीधा और खुला सैन्य टकराव हुआ। इज़राइल ने भी जवाबी कार्रवाई करते हुए ईरान की परमाणु साइटों क्रमशः नतांज और इस्फ़हान सहित सैन्य ठिकानों पर हमले किए। इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने स्पष्ट संकेत दिया कि यदि यह युद्ध बढ़ा, तो उसका अंत ईरानी शासन की समाप्ति के साथ ही होगा।

आर्थिक प्रभाव और वैश्विक प्रतिक्रिया

यह संघर्ष दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहा है। इज़राइल को अपनी रक्षा प्रणाली और सैन्य अभियानों में बेहिसाब खर्च करना पड़ रहा है, जबकि ईरान पहले से ही प्रतिबंधों और महंगाई से जूझ रहा है।

तेल की वैश्विक कीमतों में उछाल, होर्मुज़ जलडमरूमध्य जैसे शिपिंग मार्गों में बाधा और ऊर्जा आपूर्ति श्रृंखलाओं में संकट ये सब इस संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को दर्शाते हैं। वैश्विक मुद्रास्फीति और निवेश पर भी इसका असर दिखने लगा है।

भारत का रुख और रणनीतिक हित

भारत की नजर इस पूरे घटनाक्रम पर पैनी है। दोनों देशों से भारत के महत्वपूर्ण संबंध हैं, इज़राइल रक्षा और कृषि में सहयोगी है, जबकि ईरान चाबहार पोर्ट और INSTC कॉरिडोर के चलते भारत की रणनीतिक प्राथमिकता है। भारत ने बार-बार संयम और संवाद की अपील की है, क्योंकि मध्य पूर्व में किसी भी बड़े संघर्ष से न केवल ऊर्जा आपूर्ति बाधित होगी, बल्कि 80 लाख से अधिक भारतीय प्रवासी भी संकट में पड़ सकते हैं।

क्षेत्रीय ध्रुवीकरण और गुटबंदी

इस संघर्ष ने खाड़ी देशों में नई राजनीतिक रेखाएं खींच दी हैं। सऊदी अरब और UAE जैसे देश, जो पहले इज़राइल विरोधी थे, अब ईरान के खिलाफ इज़राइल के साथ रणनीतिक तालमेल बढ़ा रहे हैं। इससे क्षेत्र में गुप्त गठबंधन और ध्रुवीकरण तेज़ हो गया है।

निष्कर्ष: दोस्ती से दुश्मनी और अब युद्ध के कगार पर

ईरान और इज़राइल के बीच का संबंध एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक मोड़ का उदाहरण है जो कभी घनिष्ठ साझेदारी था, अब वह कट्टर दुश्मनी में बदल चुका है। 1979 की क्रांति ने जिस वैचारिक विभाजन की शुरुआत की थी, वह आज सीधे युद्ध की आशंका में तब्दील हो चुकी है। प्रॉक्सी वार्स से लेकर परमाणु विवाद और अब खुले सैन्य हमलों तक, यह संघर्ष जिस दिशा में बढ़ रहा है वह पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है।

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को अब कड़ी और सक्रिय भूमिका निभानी होगी। अगर समय रहते राजनयिक समाधान नहीं निकाला गया, तो यह टकराव मध्य पूर्व को ऐसी आग में झोंक सकता है जिसका धुआं पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा।

Ayush Krishn Tripathi

Ayush Krishn Tripathi

About Author

आयुष कृष्ण त्रिपाठी, पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे हैं। इसके अलावा फोटोग्राफी इनकी हॉबी है। इनकी बेहतरीन तस्वीरों के लिए इन्हें अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सम्मानित किया जा चुका है। सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर अच्छी पकड़ है।

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