द लोकतंत्र/ नई दिल्ली : 16 दिसंबर 2025 को भारतीय मुद्रा अमेरिकी डॉलर के मुकाबले पहली बार 91 के स्तर को पार कर गया। यह गिरावट सिर्फ विदेशी मुद्रा बाजार का आंकड़ा नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी, महंगाई और खर्चों पर पड़ता है। जब रुपया कमजोर होता है, तो इसका मतलब होता है कि अब एक डॉलर खरीदने के लिए पहले से ज्यादा रुपये खर्च करने पड़ेंगे, और यही स्थिति आयात पर निर्भर देश जैसे भारत के लिए महंगाई का कारण बनती है।
रुपये में गिरावट के पीछे कई घरेलू और वैश्विक कारण जिम्मेदार
रुपये में आई इस गिरावट के पीछे कई घरेलू और वैश्विक कारण जिम्मेदार हैं। अमेरिका में ब्याज दरें ऊंची रहने से डॉलर मजबूत हुआ है, जिससे दुनियाभर के निवेशक डॉलर की ओर झुक रहे हैं। इसके अलावा भारत का व्यापार घाटा भी बढ़ा है, क्योंकि देश आयात ज्यादा और निर्यात कम कर रहा है। विदेशी संस्थागत निवेशकों की निकासी, फॉरेक्स बाजार में डॉलर की बढ़ती मांग और भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को लेकर अनिश्चितता ने भी रुपये पर दबाव बढ़ाया है।
रुपया कमजोर होने का मतलब क्या है?
रुपया कमजोर होते ही सबसे पहला असर महंगाई पर दिखता है। भारत अपनी करीब 80 प्रतिशत कच्चे तेल की जरूरत विदेश से पूरी करता है। डॉलर महंगा होने से तेल आयात की लागत बढ़ जाती है, जिसका सीधा असर पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर पड़ता है। ईंधन महंगा होने से परिवहन लागत बढ़ती है और इसका बोझ दूध, सब्जी, फल, अनाज जैसी रोजमर्रा की चीजों पर भी पड़ता है।
इलेक्ट्रॉनिक्स और गैजेट्स भी रुपये की गिरावट से प्रभावित होते हैं। मोबाइल फोन, लैपटॉप, टीवी और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान का बड़ा हिस्सा आयात किया जाता है। रुपये के कमजोर होने से इनकी कीमतों में 5 से 7 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो सकती है। इसी तरह भारत दुनिया का सबसे बड़ा सोना आयातक है, इसलिए डॉलर महंगा होते ही सोने और चांदी के दाम भी बढ़ जाते हैं।
खाद्य तेल और दालों जैसी जरूरी वस्तुएं भी आयात पर निर्भर हैं। रुपये की गिरावट से इनके दाम बढ़ते हैं, जिससे रसोई का बजट बिगड़ता है। इसके अलावा दवाइयों और मेडिकल उपकरणों की लागत भी बढ़ सकती है, क्योंकि कई कच्चे रसायन विदेश से मंगाए जाते हैं।
विदेश यात्रा और पढ़ाई क्यों होती है महंगी?
विदेश यात्रा और विदेश में पढ़ाई करने वालों के लिए भी रुपये की गिरावट बड़ी चिंता बन जाती है। फ्लाइट टिकट, हॉस्टल फीस, ट्यूशन फीस और अन्य खर्च डॉलर में तय होते हैं। अगर पहले एक लाख डॉलर की पढ़ाई पर 80 लाख रुपये खर्च होते थे, तो अब वही खर्च 91 लाख रुपये तक पहुंच गया है, यानी करीब 11 से 12 प्रतिशत का सीधा बोझ।
हालांकि रुपये के कमजोर होने से सभी को नुकसान ही हो, ऐसा नहीं है। विदेश में काम करने वाले भारतीयों और एनआरआई परिवारों को फायदा होता है, क्योंकि डॉलर में भेजी गई रकम रुपये में बदलने पर ज्यादा मिलती है। आईटी और निर्यात से जुड़ी कंपनियों को भी कुछ हद तक लाभ मिलता है, क्योंकि उनकी कमाई डॉलर में होती है।
आम आदमी की जेब पर कुल असर कितना?
कुल मिलाकर रुपये की गिरावट का असर आम शहरी परिवारों की जेब पर साफ दिखाई देने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक इससे मासिक खर्च में 5 से 10 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती है। ईंधन और परिवहन पर 500 से 1,000 रुपये अतिरिक्त खर्च और रोजमर्रा की चीजों पर 2,000 से 3,000 रुपये तक का अतिरिक्त बोझ पड़ सकता है।
रुपये का कमजोर होना सिर्फ महंगाई की कहानी नहीं है, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था पर बढ़ते दबाव और वैश्विक हालात का संकेत भी है। अगर व्यापार घाटा, निवेश और वैश्विक अनिश्चितता पर काबू नहीं पाया गया, तो आने वाले समय में इसका असर आम लोगों की जिंदगी पर और गहराई से महसूस किया जा सकता है।

