द लोकतंत्र / अखिलेश कुमार मौर्य : सिनेमा एक श्रव्य दृश्य माध्यम है, जिस कारण जो लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं उन पर भी फिल्मों का गहरा असर पड़ता है। इसी वजह से सिनेमा को समाज में अपनी भूमिका समझते हुए वृहद स्तर पर ऐसे विषयों को उठाना चाहिए जो हाशिये पर जिंदगी जीने को मजबूर हैं। सिनेमा की पहुँच प्रत्येक उम्र के व्यक्ति से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक है, इसलिए इस माध्यम का उपयोग LGBTQ समुदाय की छवि को बेहतर बनाने और उन्हें भी एक सामान्य इंसान की तरह जीवन जीने में मदद देने के लिए होना चाहिए।
हालांकि, विडंबना यह है कि सिनेमा में इन LGBTQ वर्ग को लगभग नगण्य स्थान ही मिला है और यदि मिला भी है, तो हास्यास्पद या नकारात्मक छवि के रूप में। कुछ उदाहरणों में ‘संघर्ष’, ‘मर्डर-2’, ‘सड़क’, ‘दोस्ताना’, ‘कल हो न हो’ जैसी फिल्में शामिल हैं, जिनमें LGBTQ समुदाय का चित्रण नेगेटिव शेड्स में हुआ है।
ऐसा नहीं है कि केवल नकारात्मक सिनेमा ही LGBTQ वर्ग पर बना है। कुछ सकारात्मक फिल्में भी इस वर्ग की वास्तविकता को उजागर करती हैं, जैसे – ‘तमन्ना’, ‘बोल’, ‘शबनम मौसी’, ‘डियर डैड’, ‘हनीमून ट्रेवल प्रा० लिमिटेड’, ‘अलीगढ़’, ‘शुभ मंगल ज़्यादा सावधान’, ‘बधाई दो’ आदि।
माई ब्रदर निखिल
‘माई ब्रदर निखिल’ (2005) LGBTQ समुदाय के लिए एक प्रमुख फिल्म है। यह फिल्म डोमिनिक डिसूज़ा नाम के एक युवक की असली ज़िंदगी से प्रेरित थी। गोवा के रहने वाले डोमिनिक समलैंगिक थे, जो एचआईवी पॉज़िटिव पाए गए थे। 1989 में वेलेनटाइन डे की सुबह अचानक डोमिनिक को पुलिस पकड़कर ले गई और टेस्ट के बाद उन्हें सेनिटोरियम भेज दिया गया और वहाँ से कोर्ट ने उन्हें हाउस अरेस्ट में भेज दिया। कई महीनों की क़ानूनी लड़ाई के बाद जब डोमिनिक नज़रबंदी से आज़ाद हुए, तो उन्होंने एड्स के क्षेत्र में बहुत काम किया। लेकिन 1992 में उनकी मौत हो गई।
बदनाम गली (1971)
‘बदनाम गली’ (1971) फ़िल्म के बारे में बात करना जरूरी है, इसे कई फिल्म विशेषज्ञ समलैंगिकता के विषय को छूती पहली हिंदी फिल्म भी कहते हैं। इस फिल्म का निर्माण प्रेम कपूर ने किया था। फिल्म में प्रत्यक्ष रूप से समलैंगिकता को नहीं दर्शाया गया, लेकिन एक ट्रक ड्राइवर और उसके साथ काम करने वाले एक युवक की कहानी समलैंगिकता के विषय को हल्के रूप में छूकर निकल जाती है।
अलीगढ़ : LGBTQ समुदाय के अधिकारों की आवाज़
‘अलीगढ़’ (2015) फिल्म के माध्यम से निर्देशक हंसल मेहता ने समलैंगिकता और नैतिकता का मुद्दा उठाया है। वास्तविक घटनाओं को आधार बनाकर फिल्म बनाई गई है कि किस तरह से समलैंगिक व्यक्ति को समाज हिकारत से देखता है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में डॉ. श्रीनिवास रामचंद्र सिरस (मनोज बाजपेयी) मराठी पढ़ाते हैं। प्रोफेसर सिरस को समलैंगिकता के आरोप में उनके पद से बर्खास्त कर दिया जाता है। बाद में कोर्ट का फैसला प्रोफेसर सिरस के पक्ष में आता है।
शुभ मंगल ज्यादा सावधान : होमोफोबिया पर चोट
2020 में आई फ़िल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ में आयुष्मान खुराना ने कार्तिक सिंह का किरदार निभाया है, जो समलैंगिक हैं। उनका एक डायलॉग बेहद चर्चित रहा- दोस्तो, शंकर त्रिपाठी बीमार हैं, बहुत बीमार हैं, उस बीमारी का नाम है होमोफ़ोबिया। रोज़ हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है जिंदगी में। पर जो लड़ाई परिवार के साथ होती है, वो सारी लड़ाइयों में सबसे खतरनाक होती है।
बधाई दो (2022) : पारिवारिक दबाव की कहानी
2022 में आई फिल्म ‘बधाई दो’ की सूमी (भूमि पेडनेकर) लेस्बियन है और परिवार के दबाव से बचने के लिए एक समलैंगिक पुरुष (राजकुमार राव) से शादी करती है। यह फिल्म LGBTQ समुदाय के लोगों की पारिवारिक उलझनों और समाज के सामने आने वाली कठिनाइयों को बेहद सशक्त तरीके से पेश करती है।
मर्डर इन माहिम : पूर्वाग्रहों का पर्दाफाश
2024 में रिलीज हुई ‘मर्डर इन माहिम’ वेब सीरीज LGBTQ समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव और बहिष्कार की सोच पर रोशनी डालती है। यह सीरीज LGBTQ से जुड़े पारिवारिक रिश्तों की जटिलताओं की पड़ताल करती है, खासकर एक पिता और उसके बेटे के रिश्ते पर।
LGBTQ के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की ज़रूरत
भारत में 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को खत्म कर समलैंगिकता को अपराध से बाहर कर दिया। इस फैसले के 6 साल बाद समाज में बदलाव की आहट दिखाई दे रही है, लेकिन उस बड़े स्तर पर नहीं जिसकी जरूरत LGBTQ समुदाय को है। फिल्म के साथ-साथ समाज को भी अपनी सोच में बदलाव की आवश्यकता है।
सिनेमा, जो समाज का प्रतिबिंब माना जाता है, उसे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए LGBTQ समुदाय को सकारात्मक और सशक्त तरीके से प्रस्तुत करना होगा ताकि समाज का नजरिया भी बदले और वे इज्जत व गरिमा के साथ अपना जीवन जी सकें। इसके लिए न केवल फिल्म निर्माताओं बल्कि दर्शकों को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा, जिससे यह समुदाय सामान्य मानवीय अधिकारों और सामाजिक सम्मान का हकदार बन सके। सिनेमा एक शक्तिशाली माध्यम है, और अगर इसका प्रयोग सही दिशा में किया जाए, तो यह समाज में समावेशी सोच और समानता का संदेश फैला सकता है।