द लोकतंत्र/ देवरिया ब्यूरो : यह हमारे समाज की विडंबना ही है कि जिन वृद्धों ने कभी इस समाज की बुनियादों को मजबूत किया, आज उन्हीं की अंतिम सांसे दर-दर की ठोकरें खाते हुए बीत रही है। दरअसल मामला देवरिया (Deoria) का है जहां एक असहाय वृद्ध महिला के रहने की व्यवस्था नहीं हो पा रही है। शहर के एक वृद्धाश्रम ने भी बुजुर्ग को रखने में अक्षमता जतायी है। ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि अगर हमारे वृद्धाश्रमों के दरवाजे उन वृद्धों के लिए बंद हो गए हैं, जिनके पास चलने-फिरने की भी ताकत नहीं है, तो यह समाज अपने बुजुर्गों को कहाँ देखना चाहता है? सड़कों के किनारे, या किसी कचरे के ढेर पर?
वरिष्ठ समाजसेवी संजय पाठक ने पत्र लिखकर प्रशासन से माँगी मदद
इस संदर्भ में, जनपद के वरिष्ठ समाजसेवी संजय पाठक ने जिला प्रशासन को पत्र लिखकर असहाय वृद्ध महिला के मदद की गुहार लगाई। उन्होंने ज़िलाधिकारी देवरिया को पत्र लिखकर अवगत कराया कि मेडिकल कॉलेज में इलाज के बाद इस वृद्धा को कहीं और कोई ठिकाना न मिलने पर, उन्होंने शहर के एकमात्र वृद्धाश्रम से संपर्क किया। परन्तु जवाब आया, हम उन्हें नहीं रख सकते, हमारे पास ऐसी व्यवस्थाएं नहीं हैं जो पूरी तरह से अक्षम वृद्धों की देखभाल कर सकें। उन्होंने ज़िलाधिकारी को लिखे पत्र में यह सवाल भी पूछा है कि आखिर वृद्धाश्रम का मकसद क्या है? क्या यह केवल उनके लिए हैं जो अपनी देखभाल खुद कर सकते हैं? यदि हाँ, तो फिर इन संस्थानों की आवश्यकता ही क्या है? उन्होंने, ज़िलाधिकारी से उक्त वृद्धाश्रम की जाँच कराये जाने का अनुरोध भी किया।
समाजसेवी संजय पाठक ने ज़िलाधिकारी को लिखे गये पत्र की कॉपी द लोकतंत्र को उपलब्ध करायी जिसमें उनका दर्द साफ झलक रहा था। उन्होंने द लोकतंत्र से बातचीत के दौरान कहा, आज यह महिला है, कल कोई और होगा। क्या हमारे समाज और प्रशासन में इतना भी सामर्थ्य नहीं कि हम ऐसे लोगों को एक सम्मानजनक जीवन दे सकें? यह हमारे समाज की त्रासदी है जिसे हम सभी मूक दर्शक बनकर देख रहे हैं।
वृद्धाश्रम ने केवल एक महिला को दरवाजे से नहीं लौटाया, बल्कि मानवता को भी ठुकरा दिया
उन्होंने कहा, आज जब जनपद में आईआईटी पास आउट तिकड़ी और शासन-प्रशासन मिलकर विकास की बातें कर रहे हैं, बड़ी-बड़ी योजनाएं बन रही हैं, दावे हो रहे हैं तब यह घटना हमें बताती है कि हमारा विकास कितना खोखला है। देवरिया के उक्त वृद्धाश्रम ने केवल एक महिला को दरवाजे से नहीं लौटाया, बल्कि मानवता को भी ठुकरा दिया है। यह घटना केवल एक वृद्ध महिला के आश्रय की नहीं, बल्कि समाज की संवेदनहीनता को भी दर्शाती है। ऐसे में इन संस्थानों का औचित्य क्या रह जाता है, जो मानवता के सबसे कमजोर तबके को अपनाने में भी सक्षम नहीं हैं?
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संजय पाठक ने प्रशासन से मांग की कि जिले में ऐसे विशेष वृद्धाश्रमों की स्थापना की जाए, जो शारीरिक रूप से अक्षम वृद्धों को सहारा दे सकें। उन्होंने यह भी कहा कि जब तक इस समस्या का समाधान नहीं होता, हम सभ्य समाज के रूप में अपनी असली पहचान खोते रहेंगे। यह हमारे लिए एक चेतावनी है कि यदि हमने अभी भी अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया, तो आने वाले समय में मानवता का यह संकट और भी गहरा होता जाएगा। समाज की वास्तविक सेवा का अर्थ केवल दिखावटी योजनाएं बनाना नहीं, बल्कि उन लोगों के लिए एक मजबूत सहारा बनना है, जो सबसे कमजोर हैं।