द लोकतंत्र/ सुदीप्त मणि त्रिपाठी : उत्तर प्रदेश में शराब ठेकों के लाइसेंस (Liquor Shop E Lottery in UP) के लिए हुई ई-लॉटरी प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। सरकार ने इसे पारदर्शी बनाने का दावा किया था, लेकिन जैसे-जैसे लॉटरी के नतीजे सामने आए, धांधली के आरोप भी तेज होते गए। कई आवेदकों ने आरोप लगाया है कि लॉटरी सिर्फ़ दिखावा थी और ठेकों का आवंटन पहले से तय लिस्ट के आधार पर किया गया। दरअसल, उत्तर प्रदेश में शराब ठेकों के लाइसेंस के लिए हुई ई-लॉटरी में पारदर्शिता का ढोल तो जोर-शोर से पीटा गया, लेकिन जब नतीजे सामने आए, तो यह ढोल पूरी तरह फट गया। चार लाख से ज़्यादा आवेदकों को उम्मीद थी कि उनका भाग्य चमकेगा, लेकिन असल में ‘भाग्य’ उन्हीं का चमका, जिनके पास पैसा और पहुंच दोनों थी।
लॉटरी नहीं, ‘लूट’ कहिए जनाब
‘द लोकतंत्र’ ने जब देवरिया जनपद के आवंटियों की सूची की पड़ताल की, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। करीब एक दर्जन से ज़्यादा ऐसे नाम मिले, जिन्हें एक से अधिक शराब की दुकानों का आवंटन हुआ है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि या तो वे लोग असाधारण रूप से भाग्यशाली हैं, या उनके पास इतना अधिक धन था कि उन्होंने लॉटरी सिस्टम में भी अपनी किस्मत खरीद ली।
यह तो सिर्फ़ एक जिले का डेटा है, जिसमें इतनी बड़ी गड़बड़ी सामने आई है। पूरे प्रदेश में कितने ऐसे मामले होंगे, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। हालाँकि परिवार के सदस्यों के नामों पर भी ठेके आवंटित हुए हैं या नहीं, इसपर अभी बात नहीं करेंगे क्योंकि हमारे पास समय और संसाधन नहीं है कि हम परिवार रजिस्टर भी जाँच सके।
ख़ैर, इस ई लॉटरी के खेल ने गणित के ‘प्रायिकता सिद्धांत’ (Probability Theory) को भी चुनौती दे दिया है। जनपद देवरिया में 356 दुकानों के सापेक्ष 8000 से ज़्यादा आवेदन पड़े थे जहां एक व्यक्ति का एक ठेका मिलना भी मुश्किल, लेकिन कुछ ‘सौभाग्यशाली’ लोग एक साथ दो, तीन या चार ठेके जीत गए। अगर गणित के शिक्षक इस लॉटरी का विश्लेषण करने बैठें, तो वे अपने छात्रों से कह देंगे कि बच्चों, इस तरह की प्रायिकता के सवाल मत बनाना, क्योंकि हकीकत में ऐसा सिर्फ़ ‘सेटिंग’ से होता है, गणित से नहीं।
सिंडिकेट राज’ में लॉटरी का ड्रामा
इस बार प्रदेश में 27,308 शराब दुकानों के लिए 4 लाख से अधिक आवेदन जमा हुए। सरकार को सिर्फ आवेदन शुल्क से ही 1400 करोड़ रुपये से ज़्यादा की कमाई हुई। लेकिन जिस तरह नतीजे आए, उससे लोगों का सवाल है कि क्या लॉटरी वाकई में निकली, या सिर्फ़ ‘निकाल’ दी गई?
बहरहाल, जो भी हुआ, वह आम आवेदकों की सोच से परे था। बहुत से लोगों का नाम नहीं आया, लेकिन बड़े-बड़े लोगों के रिश्तेदार, मंत्रियों के करीबियों और अधिकारियों के सगे-संबंधियों, शराब माफियाओं को ठेके मिलते गए। ई-लॉटरी में भी सिंडिकेट पूरी तरह हावी था और कई आवेदकों ने दावा किया कि 1 लाख से 10 लाख रुपये तक में दुकानें ‘बिक’ रही थीं। यानी जिसने बोली लगाई, उसने ठेका उठाया। अब इसे ‘बिडिंग सिस्टम’ कहें या ‘बिल्डिंग सिस्टम’, मतलब साफ़ है कि सिर्फ़ रसूखदारों की जेब भरी गई।
जो लोग निष्पक्ष लॉटरी की उम्मीद लगाए बैठे थे, वे अब इसे एक सरकारी स्कैम मान रहे हैं। आवेदकों का कहना है कि अगर निष्पक्ष जांच हुई, तो बड़े खुलासे हो सकते हैं। जीत उन्हीं की हुई, जो पहले से ‘सिस्टम’ को समझते थे और हार उन गरीब आवेदकों की, जिन्होंने सरकारी लॉटरी को सच मानने की गलती कर दी।