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हिंदी पत्रकारिता: नारद परंपरा से लेकर ‘उदंत मार्तण्ड’ तक की गौरवशाली यात्रा

Hindi Journalism: The glorious journey from Narada tradition to 'Udant Martand'

शिव भूषण तिवारी : भारतीय सनातन संस्कृति में श्रुति और वाचिक परंपरा सदैव जीवंत रही है। हमारे यहां ज्ञान की यह परंपरा संतों और ऋषियों-मुनियों द्वारा स्थापित उस अवधारणा से पुष्ट होती है, जिसका कोई लिखित स्रोत नहीं, बल्कि यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी समाज की लोक-संवेदनाओं का हिस्सा बनती रही। यह परंपरा जितनी तात्त्विक और तार्किक प्राचीन काल में थी, उतनी ही आज भी प्रासंगिक है। इनमें से अधिकांश ज्ञान केवल लोकमान्यताओं और परंपराओं में संरक्षित है, किसी ग्रंथ में नहीं।

यदि हम सूचना और संचार की बात करें, तो उसका दैवीय स्वरूप हमें भगवान नारद के रूप में मिलता है, जिन्हें पत्रकारिता का आदि रूप माना गया है। आज हर समाचार पत्र या चैनल का कोई न कोई ध्येय वाक्य अवश्य होता है, जैसे ‘सच के सिवा कुछ नहीं’, ‘पत्र ही नहीं, मित्र भी’, ‘नई जोश, नया अंदाज़’ आदि। परंतु नारद मुनि का केवल एक ही उद्देश्य होता था, ‘लोकमंगल’, और उसी भाव से वे श्रीहरि के दरबार में जाकर गूंजते थे – नारायण! नारायण!

यही है भारतीय सूचना एवं संचार परंपरा की जड़ें, जहाँ हर संवाद के मूल में लोक कल्याण की भावना होती थी। इसी पावन विचार के साथ 30 मई 1826 को भारतीय पत्रकारिता का पहला सूर्योदय हुआ ‘उदन्त मार्तण्ड’ के रूप में। इस पत्र को पंडित युगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता (तब कलकत्ता) से प्रकाशित किया। वे मूलतः कानपुर से थे और बंगाल की भाषा में ‘य’ को ‘ज’ कहे जाने के कारण वे पंडित जुगल किशोर शुक्ला के नाम से विख्यात हुए। उन्हें हिन्दी पत्रकारिता का भागीरथ कहा जाता है।

हालाँकि ‘उदन्त मार्तण्ड’ आर्थिक तंगी और अंग्रेजी हुकूमत की उपेक्षा के कारण मात्र 79 अंकों के साथ दिसम्बर 1827 में बंद हो गया, लेकिन इसकी चिनगारी बुझी नहीं। वह धारा लेखनी के माध्यम से प्रवाहित होती रही- महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘सरस्वती’, माखनलाल चतुर्वेदी की ‘कर्मवीर’, गणेशशंकर विद्यार्थी की ‘प्रताप’, गांधी जी की ‘हरिजन’, और सुभाष, भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों की क्रांतिकारी लेखनी। इस विचारधारा ने स्वतंत्रता संग्राम की चेतना में प्राण फूंके और कलम को शस्त्र बना दिया।

भारतीय हिन्दी पत्रकारिता कोई भावनात्मक उभार मात्र नहीं थी, बल्कि यह राष्ट्र-चेतना की आवाज थी। यह कलम की क्रांति थी, जिसने अंग्रेजी सत्ता की नींव को हिला दिया। पत्रकारों ने दमन सहकर भी कलम नहीं छोड़ी। लोकतंत्र के काले अध्याय, आपातकाल को भी पत्रकारिता की स्वतंत्र आत्मा ने झेला, पर झुकी नहीं।

आज जब हम पत्रकारिता के छात्र, शिक्षक या साधक हैं, तो हमें पंडित युगल किशोर शुक्ला द्वारा ‘उदन्त मार्तण्ड’ में अंकित वह वाक्य सदैव स्मरण रखना चाहिए ‘हिंदुस्थानीयों के हित के हेतु‘। हम किसी भी संस्थान, माध्यम या भूमिका में हों, हमारी लेखनी का मूल राष्ट्रहित हो, हमारी भाषा देशभक्ति से शुरू हो और हमारी आवाज की अंतिम गूंज ‘राष्ट्रप्रथम’ के लिए हो। इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ आप सभी को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।


इस आलेख के लेखक शिव भूषण तिवारी हैं। शिव भूषण समसामयिक विषयों, सियासी मुद्दों और सामाजिक जागरूकता से जुड़े कार्यों पर लिखते रहते हैं। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।


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लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप यह ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां स्वतंत्र विचारों की प्रधानता होगी। द लोकतंत्र के लिए 'पत्रकारिता' शब्द का मतलब बिलकुल अलग है। हम इसे 'प्रोफेशन' के तौर पर नहीं देखते बल्कि हमारे लिए यह समाज के प्रति जिम्मेदारी और जवाबदेही से पूर्ण एक 'आंदोलन' है।

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