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आज के दौर में ‘माँ दुर्गा’ भी ‘दुर्व्यवहारों’ से नहीं बच सकतीं, यही हमारे समाज का नंगा सच है

In today's time even 'Maa Durga' cannot escape from 'misbehavior', this is the naked truth of our society

द लोकतंत्र/ उमा पाठक : माँ दुर्गा के पावन नवरात्रि का पर्व, स्त्री शक्ति और आध्यात्मिकता का प्रतीक माना जाता है। नौ दिन की यह पवित्र साधना, माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना, और आस्था का यह पर्व केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि एक दर्शन है नारी शक्ति का, स्त्री सशक्तिकरण का और अंततः मानवता की विजय का। लेकिन क्या वास्तव में यही सच है? क्योंकि महिलाओं के साथ ज़्यादती तो जन्म लेने से पहले ही शुरू हो जाती है। ऐसे में, क्या ये नौ दिन सचमुच स्त्री की गरिमा को स्थापित कर पाते हैं, या फिर साल के बाकी दिनों में समाज का दोगलापन अपनी जड़ें मजबूत कर रहा होता है?

यक़ीन मानिए जब मैं नवरात्रि में लोगों को माँ भगवती की पूजा करते हुए देखती हूँ, उन्हें भक्ति के रंग में डूबे हुए प्रसाद चढ़ाते देखती हूँ तो यूँही ख़्याल आता है कि क्या पूजा की थाली में चढ़ाई गई मिठाई से समाज की कड़वाहट कम हो जाएगी? क्या व्रत रखने से उन गुनाहों का प्रायश्चित हो जाएगा, जो इस देश के हर कोने में रोज़ाना किसी न किसी मासूम के साथ होते हैं? बीते दिनों जनपद देवरिया में, नवरात्रि के पहले ही दिन, एक 13 साल की बच्ची के साथ हुई छेड़खानी की घटना ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। देवरिया जैसे छोटे शहरों से लेकर बड़े महानगरों तक, कोई भी जगह महिलाओं के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।

देवी दुर्गा को भी वही अपमान झेलना पड़ेगा जो रोज़ाना हजारों महिलाएं झेलती हैं

कभी-कभी मुझे लगता है कि देवी को भी अगर आज के समाज में लाया जाए, तो क्या वह भी इन दुर्व्यवहारों से बच सकेंगी? या उन्हें भी वही अपमान झेलना पड़ेगा जो रोज़ाना हजारों महिलाएं झेलती हैं? हर साल नवरात्रि के दौरान भी देश के अलग-अलग हिस्सों से महिलाओं के साथ अपराध की घटनाएं सामने आती हैं। मैं सोचती हूं कि एक तरफ़ हम माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा कर रहे हैं, उन्हें शक्ति का स्वरूप मान रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ एक बच्ची स्कूल से घर लौटते समय डर के साए में जी रही है। मुझे यह विरोधाभास खलता है। समाज के दोगलेपन पर गुस्सा आता है।

नवरात्रि के दौरान, जिस समय घर-घर में कन्या पूजन हो रहा होता है, उसी दौरान किसी कोने में किसी बेटी की अस्मिता लूटी जा रही होती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 8% की बढ़ोतरी हुई है। रोज़ाना औसतन 90 रेप की घटनाएं सामने आती हैं। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध सिर्फ एक कानूनी समस्या नहीं हैं, बल्कि यह एक दार्शनिक और सांस्कृतिक समस्या भी है। यह समाज की उस मानसिकता को उजागर करता है, जो महिलाओं को ‘देवी’ के रूप में तो स्वीकार करती है, लेकिन उनके स्वतंत्र अस्तित्व को नहीं स्वीकार कर पाती।

महिलाओं के खिलाफ हिंसा पुरुषों के अहंकार और असुरक्षा का परिणाम

जॉन स्टुअर्ट मिल के शब्दों में, महिलाओं के खिलाफ हिंसा पुरुषों के अहंकार और असुरक्षा का परिणाम है। महिलाओं के प्रति अपराधों को तभी रोका जा सकता है जब हम समाज की इस सोच को बदलें। लेकिन यह होगा कैसे? इसको लेकर हमारी प्राथमिकताएँ क्या हैं? सरकार का प्रयास क्या है? क़ानून व्यवस्था कैसी है? प्रश्न बहुत हैं लेकिन कुछ बातें इन प्रश्नों के अस्तित्व को ही ख़ारिज कर देती हैं। सत्ता ( सरकार) से क्या उम्मीद रखें जब बलात्कार के दोषियों को सत्ता का समर्थन मिल जाता है।

हाल ही में, हरियाणा विधानसभा चुनाव 2024 में, बलात्कारी डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को पैरोल दी गई। वह खुलेआम अपने अनुयायियों के सामने भाजपा के समर्थन में अपील करता है। इस घटना ने यह स्पष्ट कर दिया कि राजनीति में सत्ता का चरित्र कितना घिनौना हो सकता है। राम रहीम, जो कई महिलाओं के बलात्कार और हत्या के मामले में दोषी पाया गया है, उसे चुनावी लाभ के लिए मंच पर बुलाना यह बताने को काफी है कि महिला सशक्तिकरण की बातें कागजी मसौदे और नारे से ज़्यादा कुछ नहीं। राम रहीम जैसों को सत्ता का संरक्षण मिलने से न सिर्फ़ अपराधियों को सामाजिक स्वीकृति मिलती है, बल्कि उन महिलाओं को भी निराशा होती है जो न्याय की उम्मीद में अपनी आवाज़ उठाती हैं।

सत्ता द्वारा उठाया यह कदम नैतिकता की दृष्टि से एक बड़ी चूक थी साथ ही उन तमाम दावों को ख़ारिज करती है जिसमें महिला सशक्तिकरण को प्राथमिकता बताया गया। महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के लिए केवल कानून का सख्त होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए समाज और सत्ता दोनों के चरित्र में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है।

बंद कीजिए नवरात्रि में देवी पूजा का स्वाँग

बंद कीजिए नवरात्रि में देवी पूजा का स्वाँग, क्योंकि आपका मूल चरित्र ठीक इसके विपरीत है। क्योंकि, असली नवरात्रि तब होगी, जब हर लड़की अपने घर, अपने स्कूल, अपनी गली में खुद को देवी की तरह सुरक्षित और सम्मानित महसूस करेगी। मुझे नहीं पता कि इस लेख को पढ़कर कोई मुझे सुनेगा या नहीं। लेकिन मैं एक आखिरी सवाल पूछना चाहती हूं, क्या वास्तव में इस देश में महिलाओं के लिए कोई जगह है? हम भले ही कितनी भी मूर्तियां बनाएं, कितने भी व्रत रखें, लेकिन जब तक असल जिंदगी में हम अपनी बेटियों, बहनों, और माताओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करेंगे, तब तक यह सारी भक्ति बेमानी है।

इस आर्टिकल की लेखिका उमा पाठक पेशेवर पत्रकार हैं और मौजूदा समय में एक मीडिया संस्थान में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हैं। इस लेख में उन्होंने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।

Team The Loktantra

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