द लोकतंत्र/ आयुष कृष्ण त्रिपाठी : भारत-अमेरिका के बीच रणनीतिक सहयोग एक नए युग में प्रवेश करने जा रहा है। दोनों देश एक दशक के लिए प्रतिबद्ध एक ऐसे व्यापक रक्षा ढाँचा समझौते पर हस्ताक्षर करने की दिशा में अग्रसर हैं, जो न केवल द्विपक्षीय सैन्य संबंधों को गहराई प्रदान करेगा, बल्कि वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव का संकेत देगा। यह समझौता सिर्फ दस्तावेजी औपचारिकता नहीं है, बल्कि दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच आपसी विश्वास, साझा हितों और सामरिक दृष्टिकोण की परिपक्वता का प्रतिबिंब है। पेंटागन द्वारा इस प्रस्तावित समझौते की पुष्टि के साथ ही स्पष्ट हो गया है कि यह सहयोग उभरती चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए वैश्विक शक्ति संतुलन में नई संरचना गढ़ने की क्षमता रखता है।
बीते कुछ वर्षों में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा क्षेत्र में जिस तीव्रता से समीपता बढ़ी है, उसका प्रमुख कारण हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता है। भारत, जो क्षेत्रीय स्थिरता और स्वतंत्र नौवहन का समर्थक रहा है, अब इस व्यापक क्षेत्र में शक्ति संतुलन बनाए रखने में एक निर्णायक भूमिका निभाना चाहता है। वहीं अमेरिका, वैश्विक शक्ति के रूप में, अपने सहयोगियों के माध्यम से सामरिक बोझ साझा करना चाहता है। ऐसे समय में यह प्रस्तावित समझौता दोनों देशों को वह साझा मंच उपलब्ध कराता है, जहाँ तकनीकी हस्तांतरण, संयुक्त अनुसंधान, सैन्य अभ्यास और औद्योगिक सहयोग जैसे आयाम समवेत रूप से विकसित किए जा सकें।
तेजी से विकसित हो रही हैं भारत की रक्षा आवश्यकताएं
भारत की रक्षा आवश्यकताएं तेजी से विकसित हो रही हैं, और वह रूस पर अपनी पारंपरिक निर्भरता को कम करने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है। ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ जैसी राष्ट्रीय पहलें इस दिशा में स्पष्ट संकेत देती हैं कि भारत अब केवल आयातक नहीं, बल्कि एक नवाचार-आधारित रक्षा शक्ति के रूप में उभरना चाहता है। यह समझौता भारत को अमेरिका की अत्याधुनिक सैन्य प्रौद्योगिकियों तक पहुंच दिलाकर उसे वैश्विक रक्षा उत्पादन श्रृंखला में एक सक्रिय भागीदार बना सकता है। ड्रोन तकनीक, जेट इंजन, साइबर सुरक्षा और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसे क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाएँ न केवल भारत की सैन्य क्षमताओं को विस्तार देंगी, बल्कि रक्षा अनुसंधान के क्षेत्र में भी एक नई ऊर्जा भरेंगी।
अमेरिकी रक्षा कंपनियों के लिए यह सहयोग भारत जैसे विशाल और संभावनाओं से भरे बाजार तक पहुँचने का अवसर है। सह-उत्पादन और संयुक्त विकास के मॉडल के माध्यम से भारत में रक्षा उपकरणों का निर्माण केवल लागत घटाने या समय बचाने का माध्यम नहीं होगा, बल्कि यह स्थानीय उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय मानकों की तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करेगा। इससे देश में न केवल रोजगार के अवसर सृजित होंगे, बल्कि दीर्घकालिक रूप से रक्षा निर्यात में भी भारत की स्थिति सुदृढ़ होगी। इस सहयोग से भारतीय सशस्त्र बलों को रणनीतिक आत्मनिर्भरता और आधुनिकता की ओर अग्रसर होने का अवसर मिलेगा, जो बदलते युद्ध परिदृश्यों में अनिवार्य है।
क्यों खास है यह समझौता?
सेनाओं के बीच आपसी समन्वय को मजबूत करने हेतु संयुक्त सैन्य अभ्यासों की आवृत्ति और जटिलता में वृद्धि की जाएगी। इससे दोनों देशों की सेनाएं न केवल एक-दूसरे की कार्यप्रणाली को बेहतर समझ सकेंगी, बल्कि आवश्यकतानुसार संयुक्त कार्रवाई की संभावनाओं को भी सुदृढ़ किया जा सकेगा। रक्षा प्रौद्योगिकी और व्यापार पहल यानी DTTI जैसे ढांचे इस समझौते के तहत और अधिक प्रभावशाली बनाए जाएँगे, ताकि तकनीकी सहयोग किसी नौकरशाही बाधा या अनिश्चितता की भेंट न चढ़े।
यह समझौता जहां भारत को स्वदेशी क्षमता विकसित करने का अवसर देगा, वहीं अमेरिका के लिए यह हिंद-प्रशांत में अपनी रणनीतिक उपस्थिति को सशक्त करने का माध्यम बनेगा। इससे अमेरिका की यह उम्मीद भी मजबूत होती है कि भारत जैसे सहयोगी देश क्षेत्रीय सुरक्षा को साझा ज़िम्मेदारी के रूप में ग्रहण करेंगे। भारत की सैन्य क्षमता में वृद्धि और तकनीकी सशक्तिकरण चीन के प्रभाव को संतुलित करने के अमेरिकी प्रयासों में प्रत्यक्ष रूप से सहायक होगा।
चीन की चुनौती और सामरिक समीकरण
इस साझेदारी के दूरगामी रणनीतिक निहितार्थ हैं। क्वाड जैसे मंच जिसमें अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं; को भी इस सहयोग से बल मिलेगा। यह समझौता वैश्विक दक्षिण के कई देशों को यह संदेश देगा कि भारत अब सामरिक, तकनीकी और आर्थिक दृष्टि से एक निर्णायक शक्ति के रूप में उभर रहा है। साथ ही, यह दक्षिण पूर्व एशिया के देशों, विशेषकर आसियान समूह के लिए एक आश्वस्त संकेत हो सकता है, जो चीन की बढ़ती गतिविधियों को लेकर चिंतित हैं।
हालांकि, इस समझौते के क्रियान्वयन में कुछ वास्तविक चुनौतियाँ भी सामने आ सकती हैं। भारत यह सुनिश्चित करना चाहेगा कि वह केवल उपकरणों के असेंबली केंद्र तक सीमित न रहे, बल्कि उसे मूल तकनीकी विशेषज्ञता भी प्राप्त हो। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की गति, बौद्धिक संपदा अधिकारों से जुड़ी चिंताएँ और नौकरशाही प्रक्रियाओं की जटिलता ऐसे कारक हैं, जो इस सहयोग को उसकी पूरी क्षमता तक पहुँचने से रोक सकते हैं। इसके अतिरिक्त, रूस के साथ भारत के पारंपरिक रक्षा संबंधों का संतुलन बनाए रखना भी एक राजनयिक चुनौती बना रहेगा, खासकर तब, जब भारत एक ओर बहुपक्षीय संबंधों की ओर अग्रसर है।
समझौता भारत और अमेरिका के संबंधों में एक मील का पत्थर
भारत की विदेश नीति अब पारंपरिक गुटनिरपेक्षता से हटकर एक नई ‘बहु-संरेखण’ की दिशा में आगे बढ़ रही है, जहाँ वह अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर विभिन्न वैश्विक शक्तियों के साथ अलग-अलग स्तरों पर साझेदारी कर रहा है। यह समझौता इस नीति की स्पष्ट अभिव्यक्ति है, जिसमें भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बनाए रखते हुए वैश्विक सुरक्षा संरचना में योगदान देना चाहता है। इसके साथ ही, भारत को अपनी घरेलू रक्षा विनिर्माण क्षमताओं में निरंतर निवेश करते रहना होगा, ताकि वह केवल एक आयातक नहीं, बल्कि वैश्विक रक्षा उद्योग में नवाचार का भी केंद्र बन सके।
अंततः यह 10-वर्षीय रक्षा समझौता भारत और अमेरिका के संबंधों में एक मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। यह द्विपक्षीय संबंधों को सामरिक गहराई और तकनीकी परिष्कार प्रदान करने के साथ-साथ, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता, शक्ति-संतुलन और साझा सुरक्षा के लक्ष्यों को मजबूत करेगा। यह साझेदारी न केवल दोनों देशों के लिए बल्कि पूरे वैश्विक समुदाय के लिए सुरक्षा, समृद्धि और स्थायित्व की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है।