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वायरल होने की होड़ में खो रही है नैतिकता, अश्लील रील्स के बढ़ते ट्रेंड से बिगड़ रही है समाज की तस्वीर

Morality is getting lost in the race to go viral, the growing trend of pornographic reels is spoiling the image of society

द लोकतंत्र/ उमा पाठक : आजकल हर सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म चाहे वह फ़ेसबुक हो, इंस्टाग्राम, यूट्यूब हो या एक्स हो सभी पर भड़काऊ और अश्लील रील्स की बाढ़ सी आ गई है। ये ट्रेंड ना सिर्फ हमारे कल्चर को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि समाज में आपराधिक प्रवृत्तियों को भी बढ़ावा दे रहे हैं। इन रील्स का मकसद सिर्फ एक ही होता है, ज़्यादा से ज़्यादा फॉलोअर्स बढ़ाना, लाइक्स पाना और कुछ समय के लिए वायरल हो जाना। हालात यह है कि कई युवा लड़कियाँ इस अंधी दौड़ में कूद रही हैं, जहां उन्हें ये समझ ही नहीं आ रहा कि वायरल होने के चक्कर में वो खुद को और समाज को ख़तरे में डाल रही हैं।

फॉलोअर्स के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी

वायरल कंटेंट के पीछे भागने की यह दौड़, लाखों फ़ॉलोवर्स और हज़ारों लाइक्स और कमेंट्स के लिए यह समाज को नैतिक पतन करने की ओर ले जा रही है। सोशल मीडिया की इस चकाचौंध में सो-कॉल्ड सोशल मीडिया इंफ्ल्युएंसर्स यह नहीं समझ पातीं कि कुछ सेकंड्स के फ़ेम के लिए वे अपने भविष्य और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को ताक पर रख रही हैं। इंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट्स और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म्स पर पॉपुलर होने की चाहत आजकल इस कदर बढ़ गई है कि ये सभी कंटेंट में कोई भी सीमा पार करने से नहीं चूकते। यह स्थिति तब और भी विकट हो जाती है जब सोशल मीडिया पर ये वीडियो बड़े स्तर पर शेयर और प्रमोट होने लगते हैं।

भले ही ये प्लेटफार्म्स कंटेंट मॉनिटरिंग और रिपोर्टिंग के नियमों का दावा करते हों, लेकिन सच्चाई ये है कि अश्लील कंटेंट वायरल होने के बाद ही कोई कार्रवाई होती है, और तब तक ये वीडियोज़ लाखों लोगों तक पहुँच चुके होते हैं, अपनी छाप छोड़ चुके होते हैं। अश्लील रील्स का ट्रेंड इसलिए भी बढ़ रहा है क्योंकि समाज में एक सोच बन गई है कि ‘नेगेटिव पब्लिसिटी’ भी ‘पब्लिसिटी’ है। और इस सोच को हवा देने का काम कई बार खुद हमारे सोशल मीडिया के यूज़र्स कर देते हैं, जब वे ऐसे वीडियोज़ को लाइक, शेयर या कॉमेंट करते हैं। इस तरह के कंटेंट से खासकर युवा वर्ग प्रभावित होता है, जिनके मन में विकृत सोच जन्म लेती है, जो आगे चलकर आपराधिक प्रवृत्तियों को भी जन्म दे सकती/रही है।

अश्लील रील्स युवा मन को प्रभावित कर रहे हैं

पब्लिक फोरम्स पर अक्सर ये सवाल उठता है कि क्या अश्लीलता और रेप जैसी घटनाओं में कोई कनेक्शन है? कुछ लोग इसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि जिस तरह से ये वीडियोज़ युवा मन को प्रभावित कर रहे हैं, वह बेहद खतरनाक है। इन रील्स में दिखाया जाने वाला कंटेंट मन में विकृत सोच को जन्म दे सकता है, जो आगे चलकर समाज के लिए घातक साबित होता है।

हाल ही में, कई घटनाएँ इस बात की गवाह बनी हैं कि सोशल मीडिया पर वायरल होने की चाह में ऐसी रील्स बनाना न केवल लड़कियों की सुरक्षा के लिए ख़तरा है, बल्कि समाज के नैतिक ताने-बाने को भी कमजोर कर रहा है। मैं एक लड़की हूँ और दिल्ली जैसे शहर में काम कर रही हूँ। मैंने महसूस किया है कि इस तरह की रील्स और अश्लील कंटेंट ने समाज को किस कदर विकृत कर दिया है। हर निगाह चाहे वह किसी उम्र वर्ग का हो इन रील्स को देखकर हवस से भरी हुई हो गई है। छोटे – छोटे बच्चे अश्लील फब्तियाँ और गंदे गानों के बोल गुनगुनाते घूम रहे हैं।

हैरानी की बात यह है कि सोशल मीडिया पर रील बनाने का चस्का लगभग हर वर्ग चाहे वह किसी उम्र के क्यों न हों लग चुका है। यही नहीं, आजकल छोटे-छोटे बच्चे भी इन रील्स का हिस्सा बनते दिखाई दे रहे हैं, जिनकी मासूमियत और समझदारी डिजिटल भीड़ में कहीं खोती जा रही है। 13-18 साल के बच्चे, जिन्हें अभी सही और गलत का फर्क भी नहीं पता वह इस दलदल में तेज़ी से उतर रहे हैं। बच्चों के पैरेंट्स उन्हें समझाने की बजाय उन्हें रील्स बनाने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। संभवतः इसके पीछे की मुख्य वजह सोशल मीडिया की मोनेटाइजेशन पॉलिसिज हो जिसकी वजह से रील्स पर आ रहे व्यूज पैसे में कन्वर्ट हो रहे हैं।

बहरहाल, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस प्रकार के अश्लील और भड़काऊ कंटेंट का समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। जब किशोर और युवा इन दृश्यावलियों को बार-बार देखते हैं, तो उनका मानसिक दृष्टिकोण परिवर्तित होता है, और वे अवचेतन रूप से इसी प्रकार के आचरण की ओर आकृष्ट होते हैं। दुर्भाग्यवश, इसका परिणाम हमारे समाज में यौन हिंसा और अपराधों की बढ़ती प्रवृत्तियों के रूप में देखा जा सकता है।

उदाहरण स्वरूप, 2019 की एक शोध रिपोर्ट में यह स्पष्ट हुआ कि सोशल मीडिया पर उत्तेजक कंटेंट देखने से किशोरों और युवाओं में यौन हिंसा के प्रति एक असहज रुचि उत्पन्न होती है, जिससे उनका नैतिक स्तर और सामाजिक समझदारी कम होती जाती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों के अनुसार, इंटरनेट और सोशल मीडिया से प्रभावित यौन अपराधों की संख्या भी चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। यह स्पष्ट करता है कि डिजिटल माध्यमों पर प्रसारित हो रही अश्लीलता हमारे समाज में एक नासूर की भांति फैल रही है, जो युवा मानस को कुंठित और हिंसक बना रही है।

सोशल मीडिया कंपनियाँ इस समस्या की गंभीरता को समझने में असमर्थ प्रतीत होती हैं। फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे दिग्गज प्लेटफार्म्स की कंटेंट मॉडरेशन नीतियाँ काफी हद तक सुस्त और कमजोर हैं। हालाँकि, वे अपने नियमों के पालन का दावा करते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि ऐसे उत्तेजक और भड़काऊ कंटेंट की भरमार के चलते ये नीतियाँ व्यावहारिक रूप से प्रभावहीन सिद्ध हो रही हैं।

सरकार का हस्तक्षेप ज़रूरी, अश्लील रील्स बनाने वाले क्रिएटर्स पर हो कार्यवाई

टिकटॉक का उदाहरण इस संदर्भ में उल्लेखनीय है, जिसे अश्लीलता और बच्चों को मानसिक रूप से विकृत करने वाले कंटेंट के कारण भारत में प्रतिबंधित करना पड़ा। लेकिन समस्या यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि इसी प्रकार के अश्लील कंटेंट अन्य प्लेटफार्म्स पर भी भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं। ऐसे में इन कंपनियों को न केवल अपनी मॉडरेशन नीतियों को सख्त बनाना चाहिए, बल्कि इस प्रकार के कंटेंट के निर्माता और प्रमोटर पर भी कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।

भारत की सामाजिक संरचना, जो परिवार, संस्कृति और नैतिक मूल्यों पर आधारित है, उसमें इस प्रकार के डिजिटल प्रदूषण से गंभीर संकट उत्पन्न हो रहा है। ऐसे में सरकार का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह डिजिटल माध्यमों पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कठोर और प्रभावी नीतियाँ तैयार करे। हालाँकि, इंटरनेट और सोशल मीडिया की दुनिया में सरकार का हस्तक्षेप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना जाता है। लेकिन, जब यह माध्यम समाज में अश्लीलता और अपराध की प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने लगे, तो सरकार का हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता है।

यदि इस समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध राष्ट्र की सामाजिक और नैतिक संरचना को गहरा नुकसान पहुँच सकता है। ऐसे में, सरकार, सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स, और समाज के हर व्यक्ति को मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार करना होगा, जहाँ हम अपनी संस्कृति और मर्यादा का सम्मान करते हुए इस माध्यम का सदुपयोग कर सकें।

इस आर्टिकल की लेखिका उमा पाठक पेशेवर पत्रकार हैं और मौजूदा समय में असिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर कार्यरत हैं। इस लेख में उन्होंने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।

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