द लोकतंत्र : लोकसभा चुनाव 2024 में उत्तर प्रदेश में बड़े बड़े धुरंधर निपट गए। यूपी में बीजेपी की सीटें आधी हुईं ही साथ ही मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) के साथ सबसे बड़ा खेल हो गया। BSP को एक भी सीट पर जीत नहीं मिल सकी और पार्टी शून्य के स्कोर के साथ साख के साथ वोट शेयर का ग्राफ भी गिरा बैठी। आख़िर, यूपी की राजनीति में मायावती अप्रासंगिक क्यों हुईं और किन कारणों की वजह से पार्टी का वोट शेयर गिर गया यह सवाल बसपा को परेशान करने वाली है।
बता दें, लोकसभा चुनाव 2019 के चुनाव में बीएसपी के खाते में जहां 10 सीटें और 19.43 फ़ीसदी वोट शेयर गए थे। वहीं इस बार उसका मत प्रतिशत घटकर 9.43 पर आ गया। यानी बसपा को सीधे सीधे 10.04 फ़ीसद वोट शेयर का नुकसान हुआ। यूपी में बसपा की इतनी बुरी स्थिति अनायास नहीं है। इस हालत की कई वजहें हैं। दरअसल, बसपा मौजूदा सियासी हालातों को भाँपने में नाकाम रही साथ ही उसने निर्णय लेने में इतनी देर कर दी जिससे उसकी हालत ख़राब हो गई।
बसपा की सबसे बड़ी गलती किसी भी गठबंधन से नहीं जुड़ना रहा। बसपा जिस तरह की राजनीति की पैरोकार है उसे INDIA अलायंस के साथ आगे बढ़ना चाहिए था। गठबंधन में जुड़ने से बसपा को फ़ायदा मिलता साथ ही मायावती के साथ आ जाने से INDIA अलायंस और भी मज़बूती के साथ एनडीए का मुक़ाबला कर सकती थी। बसपा ने जब 2019 में सपा से गठबंधन करके चुनाव लड़ा था तो 10 सीटें मिली थीं। उसके पहले 2014 में बसपा अकेले लड़ी थी और उस बार भी उसका खाता नहीं खुला था।
भीम आर्मी चीफ़ चंद्रशेखर बनें दलितों की पहली पसंद
यूपी में बसपा का खाता नहीं खुला उससे भी बड़ी चिंता मायावती को अब अपनी सियासी ज़मीन दरकने की है। भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद रावण की नगीना लोकसभा सीट से बड़े अंतर से जीतना इस वक़्त मायावती की सबसे बड़ी परेशानी में से एक है। दरअसल, नगीना सीट जीतकर चंद्रशेखर दलितों के नये मसीहा बनकर उभरे हैं। चंद्रशेखर की यह जीत बसपा सुप्रीमों मायावती की सियासत के अंत की शुरुआत है। दलितों के सबसे बड़े नेता कांशीराम के नाम पर टिकी मायावती की पूरी राजनीतिक विरासत अब चंद्रशेखर रावण की एक ठोकर से बिखरने के कगार पर है।
दरअसल चंद्रशेखर ने कांशीराम को ही अपना आदर्श बनाया और अपनी पार्टी का नाम आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) रखा है। चंद्रशेखर ने मायावती के दलित वोट बैंक, जिस पर मायावती का एकाधिकार था उसी में सेंध लगा दी। मायावती जैसे जैसे सियासत के शीर्ष पर पहुँचती गई वैसे वैसे उनका और उनके समाज के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई। मायावती ने भले ही दलित समाज के बीच उठना बैठना बंद कर दिया हो लेकिन दलितों ने पूरी निष्ठा से मायावती को वोट करना नहीं छोड़ा था। दलितों के पास मायावती के अलावा कोई मज़बूत विकल्प था भी नहीं लेकिन चंद्रशेखर के उभार ने दलितों को बसपा और मायावती के बरक्स एक सशक्त विकल्प दे दिया है जो आने वाले वक़्त में दलित समाज की राजनीति का पॉवर सेंटर बनेगा।
आकाश पर भरोसा न कर के दलितों का विश्वास खो बैठीं मायावती
मायावती ने यूँ तो अकेले चुनाव लड़ने का निर्णय लेकर बड़ा सियासी ब्लंडर किया ही था लेकिन उससे भी बड़ा ब्लंडर वो आकाश आनंद को अपने उत्तराधिकारी सहित पार्टी के तमाम पदों से हटाकर कर बैठीं। आकाश आनंद ने अपने जनसभाओं में जिस तरह का तेवर दिखाया था उससे बसपा की चमक वापस लौट ही रही थी कि पार्टी सुप्रीमों मायावती ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। अकेले चुनाव लड़ने के निर्णय के बाद मायावती की यह दूसरी बड़ी गलती थी जिसकी वजह से उन्होंने अपने कोर वोटर्स का विश्वास खो दिया।
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दरअसल, आकाश ने जिस तरह यूपी की राजनीति में अपनी एंट्री से सियासी तापमान बढ़ाया था वह कुछ ही दिन में ठंडा पड़ गया। सियासी विश्लेषकों को भी मायावती का यह फ़ैसला समझ में नहीं आया। हालाँकि कई पॉलिटिकल पंडितों का मानना था कि आकाश सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी पर हमलावर थे जिसकी वजह से मायावती को यह निर्णय लेना पड़ा। शायद इसके पीछे बीजेपी का प्रेशर पॉलिटिक्स था जो बसपा में आकाश के उभार को दबाना चाहता था।
बहरहाल, बसपा की सुस्त चाल और अपरिपक्व सियासी निर्णयों ने उसे उत्तर प्रदेश की सियासत में हाशिये पर ला पटक दिया है। ऐसे में दलितों के नये मसीहा के रूप में उभरे चंद्रशेखर दलित समाज की सियासत में कितनी दूरी तय कर पायेंगे यह आने वाला वक़्त तय करेगा।