द लोकतंत्र : कार्तिक मास की पूर्णिमा यानी आज का दिन, काशी नगरी के लिए असली दीपावली का दिन है। इस पावन अवसर को देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है, जब यह माना जाता है कि देवता पृथ्वी पर उतरते हैं। इस दिन समूचा बनारस शहर, विशेषकर गंगा के सवा सौ घाट, माटी के लाखों दीयों से अटे रहते हैं। ये दीये केवल प्रकाश नहीं हैं, बल्कि इनमें लक्ष्मी की स्मृति, सरसों की बासंती आभा, कुम्हार के चाक की लुभावनी रफ्तार और मानव श्रम का सौन्दर्य समाहित है। इन प्रकाशमान दीयों से प्रकृति और परंपरा के इस मोहक मेल से देवताओं का स्वागत किया जाता है।
कार्तिक मास का महत्व: मोक्ष से लेकर फसल तक
कार्तिक मास को धर्मशास्त्रों में स्नान, जप और अनुष्ठान के लिए विशेष महत्व दिया गया है। यह शरद ऋतु का उत्तरार्द्ध है, जब नदी का पानी स्फटिक के समान साफ होता है और ओस पत्तों पर मोती बनती है।
देवोत्थान और उत्सव: कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थान एकादशी) को भगवान विष्णु चार महीने की नींद से जागते हैं, जिसके बाद से ही यह उत्सव शुरू हो जाता है। तुलसी से विष्णु का विवाह भी इसी दिन होता है।
मोक्ष का मार्ग: धर्म शास्त्र कहते हैं कि कार्तिक में पूजा-पाठ, तीर्थ और दान करने वाले को विष्णु अक्षय फल की प्राप्ति करवाते हैं और यह मृत्युलोक से छुटकारा दिलाकर सीधा मोक्ष दिलाता है।
खेतिहर महीना: कार्तिक खेतिहर समाज का महीना है। किसान चार महीने की मेहनत के बाद खरीफ की फसल घर लाता है। यह महीना सम्पन्नता, उत्सव और उल्लास का प्रतीक है।
गुरुपर्व: इसी पूर्णिमा को गुरुनानक देव जी का जन्मोत्सव (गुरुपर्व) भी मनाया जाता है, जो इसे सगुणोपसना के साथ निर्गुणोपासना का भी पर्व बनाता है।
त्रिपुरारी पूर्णिमा: कार्तिक पूर्णिमा को ही भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर नामक असुर का अंत किया था, इसीलिए वे त्रिपुरारी के रूप में भी पूजित हैं।
आकाशदीप और पंचगंगा घाट का इतिहास
बनारस में बचपन से ही तुलसी के पौधे के पास दीया जलाने और घाटों पर आकाशदीप (बांस गाड़कर दीये की छितनी रस्सी से ऊपर पहुंचाई जाती है) टांगने का चलन रहा है। यह आकाशदीप शायद पुरखों के लिए टांगे जाते थे, और यह परंपरा का बड़ा मोहक दृश्य हुआ करता था।
पंचगंगा घाट पर देव दीपावली का जीवित इतिहास मिलता है। पंचगंगा, काशी के पांच पौराणिक घाटों (अस्सी, दशाश्वमेध, मणिकर्णिका, पंचगंगा और आदिकेशव) में से एक है। पौराणिक मान्यता है कि यहां गंगा के साथ यमुना, सरस्वती, धूतपापा और किरणा नदियां मिलती हैं। इसी घाट पर कबीर के गुरु रामानंद जी का श्रीमठ आज भी मौजूद है, जो रामभक्ति शाखा की सबसे बड़ी पीठ है।
गधे का गौदान और उत्सव का बाजारीकरण
कार्तिक पूर्णिमा की सदियों पुरानी परंपरा में गंगा स्नान, दान और तप का बड़ा महत्व रहा है। कड़कड़ाती ठंड में गंगा में डुबकी लगाने के बाद गौदान किया जाता था। एक पुराना किस्सा इस आस्था के अनूठे स्वरूप को दर्शाता है:
गौदान में गधा: एक बार दशाश्वमेध घाट पर पेल्हू गुरू के एक शिष्य ने बछिया के अभाव में गधे की पूंछ पकड़ाकर हजारों लोगों को गौदान कराया था, यह मानते हुए कि सभी जीवों में परमात्मा का वास होता है।
बदलता स्वरूप: आज समय बदल गया है। काशी का आठ किलोमीटर लंबा गंगा का अर्धचन्द्राकार तट अब स्वत:स्फूर्त सामूहिक सहभागिता के पर्व की जगह एक सरकारी इवेंट बनने की कोशिश में है।
पर्यटन और महंगाई: बचपन में जो उत्सव गजब का था, अब वह पर्यटन, होटल और नाव वालों ने मिलकर बाजार बना दिया है। घाट पर सारे मठ और घर अब होटल में तब्दील हो गए हैं। आम दिनों में 7-8 हजार के कमरे आज सत्तर-अस्सी हजार पर पहुंच गए हैं। नाव का किराया भी दो लाख के पार हो चुका है।
बाजार और वीआईपी संस्कृति के बावजूद, देव दीपावली आज भी गंगा की शीतलता में देव आशीर्वाद का अमृत घुल जाने का क्षण है, जो लाखों बनारसियों के लिए जीवन की निरंतरता और उत्सव प्रियता का आश्वासन है।

